महफिल तो उद्धव ही लूट ले गए…

महाराष्ट्र विधान सभा चुनाव में मिल सकता ठाकरे को लाभ

  • सुप्रीम फैसले का पड़ेगा दूरगामी असर
  • 2024 में नैतिकता बन सकता है मुद्दा
  • सिर्फ पार्टी को चीफ व्हिप बनाने का अधिकार

4पीएम न्यूज़ नेटवर्क
नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट के फैसले से महाराष्ट्र की एकनाथ शिंदे की सरकार बच गई। पर जिस तरह से राज्यपाल, विधान सभा स्पीकर की भूमिका पर शीर्ष अदालत ने सवाल उठाया है उससे विधायिका के काम करने के तरीके पर भी प्रश्नचिन्ह लग गया है। सबसे अहम बात उद्धव ठाकरे के बारे में कोर्ट ने कहा कि अगर उद्धव इस्तीफा न देते तो उनको फिर से सीएम बनाया जा सकता था। ये फैसला भविष्य के लिए भी नजीर बन सकता है। इस फैसले के हिसाब से देखा जाए तो आने वाले समय में राज्यपाल व स्पीकर ऐसे फैसले लेने से बच सकते हैं जिनकी वजह से विवाद होते हैं।
हालांकि राजनीतिज्ञों ने बहुत उम्मीद करना उचित नही है वो फैसले वही लेते हैं जो उनकी पार्टी लाइन से निर्देशित होते हैं। खैर अब चर्चा सुप्र्रीम कोर्ट के महाराष्ट्र मामले में फैसले के बाद होने वाले प्रभाव पर। फैसले को अपने-अपने तरीके से सियासी पार्टियां देख रही हैं परंतु कुल मिलाकर उद्धव से लोगों को सहानुभूति जरूर होने लगी है। आने वाले समय मेंं इसका सियासी लाभ मिल सकता है। अगले साल महाराष्ट्र में चुनाव भी है। इस फैसले बाद जब पत्रकारों ने सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के बाबत उनसे पूछा कि उन्होंने अगर इस्तीफा ने दिया होता तो वह सीएम के रूप बहाल हो सकते थे, आखिर उन्होंने इस्तीफा क्यों दिया तो उन्होंने जवाब दिया नैतिकता की वजह से । हालांकि उनके इस बयान के बाद सीएम एकनाथ शिंदे व देवेंद्र फडणवीस ने तंज भी कसा।
क्या महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे को सत्ता में बने रहने का अधिकार है? क्या शिंदे ने जिस तरह से महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री की कुर्सी को हासिल किया, वह अवैध था? क्या दलीय नैतिकता नाम की भी कोई चीज होती है? सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद ऐसे कई सवाल उठेंगे। सवाल यह भी है कि क्या पांच जजों की संवैधानिक पीठ के फैसले के बाद शिंदे को सीएम बने रहने का नैतिक अधिकार है? जाहिर है जब देश की सबसे बड़ी अदालत कोई टिप्पणी करती है तो उसके मायने भी बड़े होते हैं। लिहाजा महाराष्ट्र के पिछले साल के सियासी संकट पर फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने जो लकीर खींची।
सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच ने कहा कि चीफ व्हिप की नियुक्ति का अधिकार राजनीतिक पार्टी को है। यह अधिकार विधायक दल का नहीं हो सकता है। यानी भले ही एकनाथ शिंदे के साथ ज्यादा विधायक थे लेकिन इस सियासी संकट की स्थिति में उन्हें और शिवसेना के बागी विधायकों यह अधिकार नहीं था कि भरत गोगावले को चीफ व्हिप बनाया जाए। इस बात का जिक्र अभिषेक मनु सिंघवी ने भी फैसले के बाद किया। सिंघवी ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने व्हिप गोगावले की नियुक्ति को गलत माना है और कहा है कि व्हिप सिर्फ राजनीतिक पार्टी की हो सकती है न कि विधायिका पार्टी की। अब स्पीकर को जल्द से जल्द अयोग्यता याचिका पर फैसला करना होगा।

विधायिका पार्टी पर राजनीतिक पार्टी की जीत

सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की बेंच का फैसला एक तरीके से लेजिस्लेटिव पार्टी पर पॉलिटिकल पार्टी की जीत है। राजनीतिक पार्टी का फैसला ऐसे मामलों में क्यों अंतिम होना चाहिए, यह साफ करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा, अगर यह मान लिया जाए कि विधायक दल ही मुख्य सचेतक या चीफ व्हिप नियुक्त करेगा तो यह सदन के किसी सदस्य को जो गर्भनाल की तरह किसी राजनीतिक दल से जुड़ता है, उससे अलग करने की तरह होगा। यानी सुप्रीम कोर्ट ने विधायक दल की सर्वोच्चता की बजाए सदन के किसी सदस्य के लिए राजनीतिक दल की भावना को ऊपर रखा है। ऐसे में एकनाथ शिंदे के लिए यह टिप्पणी नसीहत की तरह है। फैसला लिखते हुए सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ ने एक और बड़ी बात कही। सीजेआई चंद्रचूड़ ने फैसले में कहा, इसका तो अर्थ यह होता है कि विधायक सिर्फ चुनाव के दौरान सेट होने के लिए अपने दल पर भरोसा करें। उनका प्रचार अभियान राजनीतिक दल की मजबूती-कमजोरी, वादों और नीतियों पर आधारित हो। वे चुनाव में पार्टी से अपने जुड़ाव के आधार पर अपील करें। लेकिन बाद में खुद को पार्टी से पूरी तरह अलग कर लें और एक विधायकों के समूह की तरह बर्ताव और काम करने लगें। हमारे संविधान में ऐसी शासन व्यवस्था की कल्पना नहीं की गई थी। यानी सीजेआई ने कहीं न कहीं दल-बदल करने वाले सभी विधायकों के लिए एक लकीर खींची है कि एक झटके में आप पार्टी से पल्ला नहीं झाड़ सकते हैं।

नई इबारत लिखी

सुप्रीम कोर्ट के सुप्रीम सवालों ने महाराष्ट्र ही नहीं पूरे देश के लिए एक नई इबारत लिखी है। क्या यह बेहतर नहीं होता कि एकनाथ शिंदे कोर्ट के फैसले के सामने माथा नवाते और कोई साहसी निर्णय लेते? अगर एकनाथ शिंदे के साथ असली शिवसेना है, जिसका कि वह दावा कर रहे हैं तो क्यों नहीं इस्तीफा देकर एक और चुनाव के लिए ताल ठोक देते हैं? क्यों एकनाथ शिंदे को कहना पड़ता है कि उद्धव ठाकरे को नैतिकता की बातें शोभा नहीं देती हैं? मॉरल ग्राउंड की बात शिंदे कैसे कर सकते हैं, जब सुप्रीम कोर्ट ने सीधे-सीधे शिंदे की शिवसेना विधायक दल के नेता के रूप में नियुक्ति ही खारिज कर दी। मूल सवाल फिर खड़ा होता है- क्या सुप्रीम कोर्ट के फैसले से हुई फजीहत के बाद एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बने रहने का नैतिक अधिकार है?

आर्टिकल-212 की दुहाई देने पर कोर्ट की फटकार

एकनाथ शिंदे खेमे के लिए सुप्रीम कोर्ट ने फैसले में एक और झटका दिया। बेंच ने कहा, शिवसेना के चीफ व्हिप के रूप में भरत गोगावले की नियुक्ति को अवैध इसलि है क्योंकि शिवसेना विधायक दल के एक धड़े ने यह प्रस्ताव पास किया। जबकि इस फैसले से पहले यह सुनिश्चित करने की कोशिश नहीं की गई कि यह राजनीतिक पार्टी का फैसला है। सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने संविधान के आर्टिकल-212 की शिंदे खेमे की दलील को ठुकरा दिया। संविधान का अनुच्छेद 212 संवैधानिक अदालतों को स्पीकर के फैसलों में कथित अनियमित प्रक्रिया की जांच करने से रोकता है। सर्वोच्च अदालत ने कहा कि इस तरह की दलील या व्याख्या संवैधानिक लोकतंत्र में विधायी प्रक्रियाओं की अहमियत का पूरी तरह से अनादर है।

विधानसभा अध्यक्ष को 16 विधायकों की अयोग्यता पर जल्द फैसला करना चाहिए : ठाकरे

शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे) प्रमुख उद्धव ठाकरे ने शुक्रवार को महाराष्ट्र के विधानसभा अध्यक्ष राहुल नार्वेकर से 16 विधायकों की अयोग्यता पर जल्द से जल्द फैसला लेने की मांग की। एक साल पहले शिवसेना के एकनाथ शिंदे की बगावत की वजह से उद्धव ठाकरे की अगुवाई वाली महा विकास आघाड़ी (एमवीए) सरकार गिर गई थी। शिंदे ने बाद में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के साथ मिलकर सरकार बनाई और उन्होंने मुख्यमंत्री पद तथा भाजपा के देवेंद्र फडणवीस ने उपमुख्यमंत्री पद की शपथ ली। उद्धव ठाकरे की पार्टी के नेता अनिल परब ने कहा कि वे अध्यक्ष नार्वेकर को पत्र लिखकर उनसे इस मामले पर जल्द से जल्द फैसला लेने का अनुरोध करेंगे। उद्धव ठाकरे ने कहा कि 16 विधायकों को मिला जीवनदान अस्थायी है क्योंकि उच्चतम न्यायालय ने ‘समय दिया है और इसकी सीमाएं हैं। अध्यक्ष को जल्द से जल्द इस पर फैसला लेना चाहिए। परब ने कहा, ‘‘हम कहते रहे हैं कि यह सरकार गैरकानूनी है। महत्वपूर्ण भूमिका व्हिप की होती है, उस समय व्हिप सुनील प्रभु (ठाकरे खेमे के विधायक) थे और इसका उल्लंघन किया गया था। अध्यक्ष को इस पर निर्णय करने के लिए ज्यादा वक्त नहीं लेना चाहिए। बागी विधायकों के लिए अब कोई रास्ता नहीं बचा है और उनके पास बहुत कम वक्त है।

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