कल्याण सिंह जो भाजपा के लिए साबित हुए कल्याणकारी
लखनऊ। उत्तर प्रदेश के पूर्व सीएम और राजस्थान के राज्यपाल कल्याण सिंह अस्पताल में हैं । गुरुवार-शुक्रवार को वह अचानक सुर्खियों में आए जबकि उनकी मौत की अफवाहें उडऩे लगीं। लखनऊ स्थित अस्पताल ने इस अफवाह से इनकार किया है, साथ ही राजनीतिक गलियारे से कई हस्तियों ने इससे इनकार किया है और कल्याण सिंह के अच्छे होने की कामना की है ।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शुक्रवार को उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के स्वास्थ्य के बारे में पूछताछ की और कहा कि पूरे भारत में लोग उनके शीघ्र स्वस्थ होने की प्रार्थना कर रहे हैं।
प्रधानमंत्री मोदी ने अपने ट्वीट में लिखा कि पूरे भारत में अनगिनत लोग कल्याण सिंह जी के जल्द स्वस्थ होने की प्रार्थना कर रहे हैं। कल जेपी नड्डा जी, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी और अन्य लोग उनसे मिलने अस्पताल गए थे। मैंने अभी उनके पोते से बात की है और उनके स्वास्थ्य के बारे में पूछताछ की है ।
कल्याण सिंह….अगर इस नाम का जिक्र करते हैं तो फिर राजनीति का पूरा युग एक बार फिर अलीगढ़ तक पहुंच जाता है। यहां अतिरौली विधानसभा सीट है और यह 1967 का युग है। कल्याण सिंह के लिए यह साल पहला साल था जब उन्होंने चुनावी जीत का स्वाद चखा था और प्रदेश की राजनीति में उभरे थे। इससे पहले पांच साल की बात करें तो कैलेंडर में साल 1962 था। उसी साल जब 30 वर्षीय कल्याण सिंह अलीगढ़ की अतरौली सीट पर जनसंघ की ओर से लड़े तो वह हार गए थे।
1980 में भाजपा के जन्म के ठीक दस साल बाद देश का राजनीतिक माहौल बदलने लगा। यह वही साल था जब मंडल-कमंडल राजनीति की शुरुआत 1989-90 में हुई थी और भाजपा को अपने राजनीतिक बचपन में आने वाली बाधाओं का एहसास हुआ था। कल्याण सिंह इस दौर और संकट के मुक्तिदाता बने। जब आधिकारिक तौर पर पिछड़ा वर्ग की जातियों को श्रेणियों में बांटा जाने लगा और पिछड़े वर्ग की सत्ता ने राजनीति में पहचान बनानी शुरू कर दी तो भाजपा ने कल्याण पर दांव खेला।
दरअसल, भाजपा में शुरू से ही बनिया और ब्राह्मण पार्टी की पहचान हुआ करती थी। इस छवि को बदलने के लिए भाजपा ने कल्याण सिंह को पिछड़ों का चेहरा बनाया और फिर सुशासन के जरिए कमंडल का जलवा मंडल की राजनीति पर छा गया।
1962 से 1967 के बीच इस पांच साल तक कल्याण सिंह ने खुद को राजनीतिक आंच में ऐसा तपाया कि इसका नतीजा यह हुआ कि जब 1967 में वह जीते तो इस तरह से जीते कि 1980 तक लगातार विधायक बने रहे। वर्ष 1980 को भाजपा का जन्म वर्ष माना जाता है और कुछ राजनीतिक पंडितों का मानना है कि भाजपा को राज्य की राजनीति से लेकर राष्ट्रीय राजनीति तक ले जाने में कल्याण सिंह ने कई कदम उठाए हैं। भाजपा के लिए कल्याण सिंह अपना नाम सार्थक करते हैं और कल्याणकारी साबित हुए।
यूपी की राजनीति के विशेषज्ञ कहते हैं कि एक समय था जब कल्याण सिंह का पार्टी में अपना ही रुतबा था लेकिन 1999 में जब उन्होंने पार्टी के सबसे बड़े नेता अटल बिहारी वाजपेयी की सार्वजनिक रूप से आलोचना की तो उन्हें पार्टी से निकाल दिया गया। इसके बाद कल्याण सिंह ने अपनी राष्ट्रीय क्रांति पार्टी बनाई और 2002 में विधानसभा चुनाव में हिस्सा लिया। 2003 में वह समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन सरकार में शामिल हो गए। उनके बेटे राजवीर सिंह और सहायक कुसुम राय को भी सरकार में महत्वपूर्ण विभाग मिले। लेकिन, मुलायम के साथ कल्याण की यह दोस्ती लंबे समय तक नहीं चली।
2004 के चुनाव से ठीक पहले कल्याण सिंह भारतीय जनता पार्टी के साथ वापस आ गए थे। भाजपा ने कल्याण सिंह के नेतृत्व में 2007 का विधानसभा चुनाव लड़ा, लेकिन सीटें बढऩे के बजाय कम हो गईं। इसके बाद 2009 के लोकसभा चुनाव के दौरान कल्याण सिंह फिर से समाजवादी पार्टी में शामिल हो गए।
इस दौरान उन्होंने भारतीय जनता पार्टी और उसके नेताओं को कई बार भला-बुरा भी कहा। इसके बाद 2012 में बीजेपी में वापस आ गए। 2014 में उन्हें राजस्थान का राज्यपाल नियुक्त किया गया।
कल्याण का राजनीतिक सफर
वे अलीगढ़ की अतरौली विधानसभा सीट से 9 बार विधायक रहे, दो बार सीएम बने।
बुलंदशहर की डिबाई विधानसभा सीट से दो बार विधायक बने, लेकिन बाद में यह सीट छोड़ दी।
बुलंदशहर से बीजेपी से अलग होकर सपा से समर्थन लेकर 2004 में सांसद बने।
2009 में एटा जिले से सांसद चुने गए।
2014 में राज्यपाल बने।