निकाय चुनाव नतीजों से मिलेगी सीख

भाजपा-सपा को लाभ, कांग्रेस-बसपा को नहीं मिला फायदा

  • परंपरागत वोटरों ने बदला मिजाज
  • सभी राजनैतिक दलों ने अपनाए नए प्रयोग
  • दो-दो मंत्री भी नहीं जीता सके चुनाव
  • बगावत से भी कमजोर हुई कांग्रेस

4पीएम न्यूज़ नेटवर्क
लखनऊ। यूपी के नगरीय निकाय चुनाव में भाजपा को अन्य दलों की अपेक्षा सबसे अधिक सीटें मिलीं हैं। दूसरे नंबर पर सपा, जबकि उसके बाद बसपा व कांग्रेस का नंबर आता है। सीटों की संख्या के आधार व वोटों के प्रतिशत से सभी दल अपनी हार या जीत की समीक्षा करेंगे। लेकिन लब्बोलुआब देखा जाए तो इसबार वोटरों ने अपना मिजाज बदला है। परंपरागत वोटरों ने अपनी पार्टी बदली है तो पार्टियों ने भी एक ही ढर्रे में चले आ रहे परिपाटी को खत्म कर केैडर उम्मीदवार की जगह अलग तरह के प्रत्याशियों पर दांव लगाया है। ये अलग तरह के प्रयोगों से सियासी दलों को उतना लाभ भले ही न मिला हो पर इसका इशारा जरूर मिला है कि आने वाले चुनाव में नए बदलाव के साथ अगर राजनैतिक दल चुनावी अखाड़े में आएं तो उन्हें अपेक्षाकृत लाभ होगा।
जालौन सांसद एवं केंद्रीय राज्यमंत्री भानुप्रताप वर्मा और प्रदेश सरकार के एमएसएमई मंत्री राकेश सचान भी उनके क्षेत्र में पार्टी प्रत्याशी को नहीं जिता सके। अमरौधा नगर पंचायत की भाजपा प्रत्याशी उमा देवी हार गई। रामपुर मनिहारान विधानसभा से भाजपा विधायक देवेंद्र निम और प्रदेश के औद्योगिक विकास राज्य मंत्री जसवंत सैनी भी अपने क्षेत्र में भाजपा प्रत्याशी को जीत नहीं दिलवा सके। रामपुर मनिहारान में भाजपा प्रत्याशी सुशीला देवी को बसपा की रेनू ने पराजित किया। नकुड विधानसभा क्षेत्र में भाजपा विधायक मुकेश चौधरी सरसावा नगर पालिका में भाजपा प्रत्याशी वर्षा मोगा को जीत नहीं दिलवा सके। बड़ौत विधानसभा से विधायक व मंत्री केपी मलिक के क्षेत्र की बड़ौत नगर पालिका से भाजपा प्रत्याशी सुधीर मान हार गए।
चुनाव के मौके पर शहर कांग्रेस के अध्यक्ष दिलप्रीत सिंह और अजय श्रीवास्तव अज्जू भाजपा में चले गए। उनके साथ कई और कार्यकर्ता भी चले गए। टिकट बंटवारे को लेकर विवाद से कई जगह अधिकृत प्रत्याशी ही तय नहीं हो पाए। एक बार तो प्रत्याशियों की जारी सूची को ही फर्जी बताया गया। बाद में कोई नई सूची भी नहींं जारी की गई। महापौर प्रत्याशी का नाम तो नामांकन के दिन ही खोला गया।

सपा : भितरघात ने पहुंचाया नुकसान

संगठन की निष्क्रियता, मेहनती कार्यकर्तां की जगह अपनों को टिकट देने और भीतरघात के कारण लखनऊ के नगर निगम के साथ नगर पंचायत चुनाव में सपा की हवा निकल गई। शहरी क्षेत्रों में सपा का प्रदर्शन पिछली बार से अधिक पिछड़ गया। पिछली बार 34 वार्ड में सपा के पार्षद चुने गए थे, यह संख्या इस बार 21 हो गई। वहीं सपा गांवों में भी वर्ष 2017 का प्रदर्शन नहीं दोहरा सकी। पिछली बार सपा ने नगर पंचायत की आठ में से पांच सीट सपा ने वर्ष 2017 में जीती थी। पिछले साल विधानसभा चुनाव में हार का सामना करने के बाद सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने तीन जुलाई 2022 को महानगर, जिला संगठन सहित सभी कार्यकारिणी भंग कर दी थी। संगठन भंग होने के बाद क्षेत्रों में पार्टी कार्यकर्तांओं की सक्रियता भी कम हो गई। निकाय चुनाव से ठीक पहले सपा ने जय सिंह जयंत को दोबारा जिलाध्यक्ष और सुशील दीक्षित महानगर अध्यक्ष बना दिया। इस बीच निकाय चुनाव की घोषणा हो गई। अखिलेश यादव ने पूर्व मंत्री अरविंद सिंह गोप की अध्यक्षता में नगर निगम चुनाव प्रबंध की कमेटी बनायी। इस कमेटी के बावजूद पार्षदी के दावेदारों की सूची ने मौजूदा दोनों विधायकों और विधानसभा प्रभारियों ने महानगर संगठन से साझा ही नहीं की। यहीं कारण रहा कि नामांकन के अंतिम दिन तक कई दावेदारों के टिकट काटे गए। महानगर संगठन ने 110 में से 83 और जिला संगठन ने 26 वार्डों में प्रत्याशी उतारे। अरविंद यादव की पत्नी वर्ष 2017 में पार्षद का चुनाव जीती थी। इब्राहिमपुर प्रथम वार्ड ने अर्जुनगंज की रहने वाली शांति यादव को सपा ने उतारा। क्षेत्रीय विरोध के बीच इस वार्ड में सपा तीसरे नंबर पर रही। दूसरे नंबर पर निर्दलीय मो. उस्मान उर्फ लल्लन रहे। गढ़ी पीर खां में पिछली बार के पार्षद अयाजुर्रहमान उर्फ अल्लाह प्यारे का टिकट काटकर सिमरन सक्सेना को दिया गया। नगर निगम चुनाव में जहां मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कई सभाएं की। वहीं अखिलेश यादव केवल एक मेट्रो यात्रा को छोड़ चुनाव प्रचार से दूर रहे। ट्रांसपोर्टनगर से भूतनाथ तक मेट्रो सफर में भी वह किसी मतदाता से नहीं मिल सके थे। शिवपाल सिंह यादव ने जरूर मलिहाबाद में सभा की थी। ऐसा पहली बार हुआ जबकि पार्षद और नगर पंचायत के टिकट पार्टीं कार्यांलय की जगह होटल से बांटे गए। नामांकन से एक दिन पहले सारी रात आवेदकों को बुलाकर टिकट बांटा गया। इंटरनेट मीडिया पर वरिष्ठ कार्यकर्तांओं ने इसका विरोध दर्ज कराया। चुनाव में उन्होंने भी दूरी बनाए रखी।

भाजपा : दिग्गज भी नही दिला पाए वोट

नगरीय निकाय चुनाव में केंद्र और प्रदेश सरकार के कई मंत्रियों के इलाकों में भी भाजपा को हार का सामना करना पड़ा है। देश में अलग-अलग जगहों पर चुनाव कराने के लिए भेजे जाने वाले राष्ट्रीय  पदाधिकारी अपने क्षेत्र में पार्षद को न जितवा पाए। भाजपा ने नगरीय निकाय चुनाव को लोकसभा चुनाव का पूर्वाभ्यास मानते हुए लड़ा है। पार्टी ने चुनाव से पहले केंद्रीय मंत्रियों, सांसदों और विधायकों को उनके क्षेत्र की निकायों में जीत की जिम्मेदारी सौंपी थी, लेकिन नतीजे चौंकाने वाले सामने आए हैं। नगरीय निकाय चुनाव में भाजपा के दिग्गज सांसद और विधायकों भी अपना क्षेत्र नहीं बचा सके हैं। विधायकों और सांसदों के निर्वाचन क्षेत्र से जुड़ी नगर पालिका परिषद और नगर पंचायतों में भाजपा को हार का सामना करना पड़ा है। चुनाव परिणाम के बाद भाजपा प्रदेश मुख्यालय को मिल रहे फीडबैक में सामने आया है कि कई जगह सांसद और विधायकों के करीबियों ने बगावत कर पार्टी प्रत्याशी को चुनाव हराया। माननीय अव्वल तो अपने करीबी को मैदान से हटाने में नाकाम रहे और उसके बाद पार्टी प्रत्याशी के समर्थन में प्रचार में भी दिलचस्पी नहीं ली। चुनाव हारने के बाद प्रत्याशियों ने इसका ठीकरा विधायक और सांसदों पर फोडऩा शुरू कर दिया है। अवध सहित अन्य क्षेत्रों में आरोप लगाए जा रहे हैं कि कई सांसदों और विधायकों ने न सिर्फ अपने परिजनों और करीबियों को रणनीति के तहत चुनाव लड़ाया, बल्कि पार्टी के अधिकृत प्रत्याशी की हार के लिए पर्दे के पीछे सारे जतन करते रहे। कई विधायक तो चुनाव आते ही बीमारी का बहाना बनाकर निष्क्रिय हो गए और पार्टी को दिखाने के लिए फोटो खिंचाने तक सीमित रहे। नतीजे आते ही फिर सक्रिय होकर मैदान में आ गए हैं।

कांगेस : पिछली बार से कम हो गईं सीटें

पिछले चुनाव में आठ वार्डों में जीतने वाली कांग्रेस आपसी कलह के चलते पिछला आंकड़ा भी नहीं छू सकी। इस बार कांग्रेस ने महज चार सीटों पर ही जीत दर्ज की। यह हाल तब है जबकि नामांकन के दिन तक पार्टी प्रत्याशियों को बदलती रही। वहीं इस बार दो सीटें तो उन कार्यकर्ताओं के कारण कम हो गईं जो पार्टी की उपेक्षा और नेताओं की मनमानी से दूसरे दल में चले गए और चुनाव भी जीत गए।इस बार जिन सीटों पर पार्टी के पार्षद जीते हैं, उनमें मालवीय नगर वार्ड से ममता चौधरी, गोमतीनगर वार्ड से कौशल शंकर पांडेय, इस्माइलगंज प्रथम से मुकेश सिंह चौहान और मौलाना कल्बे आबिद वार्ड से इफहामुल्लाह फैज हैं। जो दो जिताऊ सीटें इस बार पार्टी ने गंवाई हैं, उनमें एक महात्मा गांधी वार्ड और दूसरी रामजीलाल सरदार पटेल वार्ड की है। महात्मा गांधी वार्ड से अमित चौधरी को इस बार पार्टी ने मांगने के बाद भी टिकट नहीं दिया। अंत में वह बसपा में चले गए और चुनाव भी जीते। इसी तरह रामजीलाल सरदार पटेल वार्ड के पार्षद रहे गिरीश मिश्र पार्टी नेताओं की उपेक्षा के चलते भाजपा में चले गए। इस बार उन्होंने पत्नी को भाजपा से चुनाव लड़ाया और वे जीत भी गईं। गिरीश ऐसे पार्षद हैं जो पिछले 25 साल से भाजपा के गढ़ में पार्टी को जीत दिला रहे थे। पिछले बार जो आठ पार्षद जीते थे उनमें दो साल पहले कोरोना के समय ओम नगर के पार्षद राजेंद्र सिंह गप्पू और राजाबाजार वार्ड की पार्षद शहनाज की मृत्यु हो गई थी। ऐसे में यह दो जिताऊ सीटें वैसे ही पार्टी के हाथ से निकल गईं थीं।

बसपा: नए-नए प्रयोग पर परिणाम जस का तस

उत्तर प्रदेश के निकाय चुनावों के परिणाम आने के बाद सबसे बड़ी चिंता बहुजन समाज पार्टी को सता रही है। दरअसल लगातार चुनावों में बसपा के गिरते ग्राफ से न सिर्फ पार्टी का वोट बैंक खिसक रहा है, बल्कि पार्टी के कद्दावर नेताओं का भी विश्वास डगमगा रहा है। पार्टी के रणनीतिकारों के मुताबिक सबसे बड़ी चिंता इस बात की है कि अगले साल लोकसभा का चुनाव है और पार्टी निकाय चुनावों में मुसलमानों पर दांव लगाकर एक बार फिर से पूरी तरह फ्लॉप हो गई है। ऐसे में पार्टी के भीतर अब चर्चा इस बात की हो रही है कि क्या एक बार फिर से बहुजन समाज पार्टी को दोबारा से सक्रिय होने के लिए एक मजबूत गठबंधन की बेहद आवश्यकता है। पार्टी से जुड़े नेताओं का मानना है कि इस पर फैसला बसपा सुप्रीमो मायावती को ही लेना है। बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती ने उत्तर प्रदेश के निकाय चुनावों में आने वाले लोकसभा चुनावों के पहले के सेमीफाइनल की तरह ही सियासी फील्डिंग सजाई थी। मायावती ने दलित और मुस्लिम राजनीति के गठजोड़ को बड़ा सियासी समीकरण मानते हुए यूपी में 17 मेयर की सीटों पर 11 मुसलमानों को टिकट देकर अपने सियासी इशारे साफ कर दिए थे। जब निकाय चुनाव के परिणाम आए, तो बसपा के लिए यह बेहद निराशाजनक रिजल्ट रहे। मायावती को बीते कुछ चुनावों में ऐसा लग रहा है कि दलित और मुस्लिम गठजोड़ से पार्टी का भला हो सकता है। अब तक मायावती सोच भी ठीक रही थी, लेकिन इस वक्त के जो सियासी समीकरण हैं, उसके लिहाज से दलितों के वोट बैंक में भाजपा ने जबरदस्त तरीके से सेंधमारी की है और मुसलमानों का बसपा पर भरोसा कायम नहीं हो पा रहा है। बल्कि मायावती के मुसलमानों पर ज्यादा भरोसा करने की वजह से दलित भी उनसे छिटक कर दूर जा रहा है।

 

 

 

 

 

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