त्रिपुरासुर का वध भी है देव दीपावली मनाने का एक कारण

नई दिल्ली। हिन्दू धर्म में जो मान्यता है उसके अनुसार देवउठनी एकादशी के दिन देवता जाग जाते हैं और कार्तिक पूर्णिमा के दिन सभी देवता मां यमुना तट पर स्नान कर दिवाली का उत्सव मनाते हैं. आपको बताते चलें कि कार्तिक पूर्णिमा पर स्नान करने का शुभ मुहूर्त 19 नवंबर दिन शुक्रवार को ब्रम्ह मुहूर्त से लेकर दोपहर 02.29 बजे तक है. तो चलिए आपको बताते चलें कि देव दीवाली मानने के पीछे कौन सी है मान्यता और क्या है इससे जुड़ी पौराणिक कथा….
मान्यता के अनुसार एवं एक पौराणिक कथा के मुताबिक भगवान कार्तिकेय ने जब तारकासुर का वध किया तो उसके तीनों पुत्रों ने देवताओं से बदला लेने का प्रण कर लिया. तारकासुर के तीन पुत्रों ने कठोर तप करके ब्रह्माजी से वरदान मांगा। उनहोंने अपने अपने वरदान में कहा कि हे प्रभु! आप हमारे लिए तीन पुरियों का निर्माण करें एवं तीनों पुरियां जब अभिजीत नक्षत्र में एक ही पंक्ति में खड़ी हों और कोई अत्यंत शांत अवस्था में असंभव रथ और असंभव बाण का सहारा लेकर हमें मारने का प्रयास करें तो ही हमारी मृत्यु हो। ब्रह्माजी ने उन तीनों को तथास्तु! कहकर आशीर्वाद दिया.
इस वरदान के मिलने के बाद उसके तीनों ने अपने आतंक से पाताल, धरती और स्वर्ग लोक समेत सभी लोकों में लोगों और देवताओं को कष्टï देना आरंभ कर दिया. ऐसी स्थिति में सभी पीडि़त भगवान शिव से सहायता मांगने गए और उनसे राक्षस का अंत करने की मनुहार करने लगे. तत्तपश्चात भगवान शिव ने त्रिपुरासुर राक्षस का वध किया. इस राक्षस के अंत की खुशी में सभी देवता प्रसन्न हो गए और भोलेनाथ की नगरी काशी पहुंचे एवं प्रसन्नचित देवताओं ने काशी में लाखों दीए जलाकर खुशियां मनाई. जिस दिन यह सबकुछ हुआ उस दिन कार्तिक मास की पूर्णिमा तिथि थी तभी से लेकर अब तक कार्तिक माह की पूर्णिमा पर काशी में बड़े भव्य रूप में देव दीपावली मनाई जाती है।
एक अन्य किवदंती के अनुसार त्रिशंकु को राजर्षि विश्वामित्र ने अपने तपोबल से स्वर्ग पहुंचा दिया था. इससे देवतागण नाराज हो गए और त्रिशंकु को देवताओं ने स्वर्ग से निकाल दिया. शाप के कारण त्रिशंकु अधर में लटक गए. इस घटना से आक्रोशित विश्वामित्र ने पृथ्वी-स्वर्ग आदि से मुक्त एक नई समूची सृष्टि की अपने तपोबल से रचना करना आरंभ कर दिया. उन्होंने कुश, मिट्टी, ऊंट, बकरी-भेड़, नारियल, आदि की रचना कर डाली. इसी दौरान राजर्षि नेे वर्तमान ब्रह्मा, विष्णु और महेश की प्रतिमा बनाकर उन्हें अभिमंत्रित कर उनमें प्राण फूंकना का काम शुरू कर दिया.इस समूची प्रकृति पर खतरा मंडराने लगा. इस बीच देवताओं ने राजर्षि विश्वामित्र की प्रार्थना की तो महर्षि प्रसन्न हो गए और उन्होंने नव सृष्टि की रचना का अपना संकल्प तयाग दिया. इससे देवता आदि सभी प्रसन्न हो गए ओर तीन लोकों में दीपावली के भांति ही उत्सव मनाय गया तभी से इस दिन से देव दीपावली मनाई जाती है.
ऐसी भी मान्यता है कि आषाढ़ शुक्ल एकादशी से भगवान विष्णु चार महीने के लिए योग निद्रा में चले जाते हैं और फिर वे कार्तिक शुक्ल एकादशी को ही जागते हैं. इस एकादशी के दिन उनका तुलसी से विवाह होता है और इसके बाद भगवान के निद्रा से जागने की खुशी में सभी देवी-देवताओं ने कार्तिक पूर्णिमा को लक्ष्मी और नारायण की महाआरती कर दीप प्रज्वलित कर अपनी खुशियां मनाईं.
एक अन्य मान्यता के अनुसार यह भी कहा जाता है कि बाली से वामनदेव द्वारा स्वर्ग की प्राप्ति की खुशी में सभी देवताओं ने मिलकर कार्तिक मास की पूर्णिमा को खुशी मनाई एवं गंगा तट पर दीप जलाए तभी से देव दिवाली मानने की परंपरा शुरू हुई. यह भी कहा जाता है कि इसी दिन भगवान विष्णु ने सतयुग में मत्स्य अवतार लिया था. एवं इसी दिन देवी तुलसीजी का प्राकट्य हुआ था. ऐसी भी मान्यता हैं कि कार्तिक पूर्णिमा को ही श्रीकृष्ण को आत्मबोध हुआ था।

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