चार की तरह न हो जाए चौबीस

अटल सरकार का इंडिया शाइनिंंग व फील गुड बन गया था बैड

  • चारों तरफ चला था कांग्रेस का हाथ गरीबों के साथ
  • कर्नाटक की जीत से विपक्ष में उत्साह
  • भाजपा हार के बाद रणनीति बनाने में जुटी
  • सोनिया गांधी ने ठुकराया था प्रधानमंत्री का पद

4पीएम न्यूज़ नेटवर्क
नई दिल्ली। 2024 लोकसभा चुनाव की उल्टी गिनती शुरू होने वाली है। 2004 मई में अटल बिहारी बाजपेई के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार को उखाड़ कर यूपीए की सरकार बनी थी। जिसके मुखिया मनमोहन सिंह बने थे। उनके सरपरस्ती में गठबंधन की सरकार पूरे दस साल चली थी। अटल के इंडिया शाइनिंग व फील गुड के ऊपर कांग्रेस का हाथ सबके साथ का पलड़ा भारी पड़ा था। हालांेिक 2014 में यूपीए को पछाडक़र बीजेपी की सरकार दिल्ली की कुर्सी पर काबिज हो गई थी। जो तबसे चली आ रही है। अब चूकि अगले साल चुनाव होने हैं इसलिए यूूपीए एकबार फिर बीजेपी को सत्ता से उतार कर 24 में खुद सरकार में आने की जुगत लगा रही है। आगे क्या होगा ये तो चुनाव परिणामों से ही पता चलेगा। परंतु अगर 2004 को ट्रेंड मान लिया जाए तो इसबार भाजपा को सत्ता मिलना मुश्किल हो सक ता है कांग्रेस की गठबंधन सरकार बन सकती है।
मई 2004 में 14वीं लोकसभा चुनाव का परिणाम आया। 8 साल तक सत्ता से बाहर रहने के बाद एक बार फिर से कांग्रेस गठबंधन को बहुमत मिला। हर किसी को लग रहा था कि अब सोनिया गांधी देश की प्रधानमंत्री बनेंगी। लेकिन, 22 मई को देश हैरान रह गया जब मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। 10 जनपथ में जब मनमोहन सिंह का नाम तय हो रहा था तो हालात किसी फिल्म की कहानी की तरह थे। आज इस स्टोरी में स्टेप-बाय-स्टेप उनके प्रधानमंत्री बनने की कहानी जानते हैं… 2004 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने समय से 5 महीने पहले ही चुनाव कराने का ऐलान कर दिया। वजह थी चार राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा का बेहतर प्रदर्शन। कांग्रेस की हालत खराब थी और इधर अटल बिहारी वाजपेयी की छवि साफ सुथरी बनी हुई थी। ऐसे में भाजपा को लग रहा था कि आसानी से सरकार बना लेगी। भाजपा ने ‘इंडिया शाइनिंग’ और ‘फील गुड’ का नारा दिया। इसके बाद 20 अप्रैल से 10 मई 2004 के बीच चार चरणों में चुनाव हुए। 13 मई को जब परिणाम आया तो अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए के पास बहुमत नहीं रहा।

पहली बार बना यूनाइटेड प्रोग्रेसिव एलायंस (यूपीए)

लोकसभा चुनाव से पहले ही कांग्रेस पार्टी ने तय किया कि वो गठबंधन बनाकर चुनाव में उतरेगी। दरअसल, तीसरे मोर्चे की राजनीति की वजह से 8 साल तक सत्ता से दूर रहने के बाद कांग्रेस इस बार कोई गुंजाइश नहीं छोडऩा चाहती थी। चुनाव में लड़ाई आमने-सामने की हो गई। कांग्रेस अध्यक्ष होने के नाते सोनिया गांधी के कंधे पर सबको एकजुट करने की जिम्मेदारी थी। उन्होंने पार्टी के फैसलों के उलट जाकर भी काम किया। 1998 में मध्य प्रदेश के पचमढ़ी में कांग्रेस की सालाना वर्किंग कमेटी की मीटिंग हुई। इसमें तय हुआ कि पार्टी अब क्षेत्रीय दलों से गठबंधन नहीं करेगी। 2004 के लोकसभा चुनाव में सोनिया गांधी ने इस बात को किनारे रख दिया। इसके बाद सोनिया ने छोटे दलों से गठबंधन करने के लिए कई अहम भूमिका निभाई। जैसे- सोनिया खुद राम विलास पासवान के घर जाकर मिलीं। राजीव गांधी की हत्या की जांच वाली जैन कमीशन की रिपोर्ट में तमिलनाडु के ष्टरू करुणानिधि का नाम था। इसके बावजूद सोनिया गांधी ने डीएमके से गठबंधन किया। बिहार में लालू यादव ने कहा कि हम कांग्रेस को राज्य की 40 में से बस चार सीट देंगे। कांग्रेस पार्टी के सीनियर नेता इसके खिलाफ थे। राजद से गठबंधन बनाने के लिए सोनिया गांधी ने इसे भी मान लिया। इसी तरह सोनिया ने महाराष्ट्र में एनसीपी से गठबंधन किया और जम्मू में पीडीपी को भी साथ ले लिया। यूपी में बसपा और सपा को साथ लाने की कोशिश हुई मगर यहां बात नहीं बनी। इसके बाद पहली बार कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए यानी यूनाइटेड प्रोग्रेसिव एलायंस बना। इसकी चेयरपर्सन बनीं सोनिया गांधी। कांग्रेस कैंपेन का नारा था कांग्रेस का हाथ, आम आदमी के साथ। यह नारा इंडिया शाइनिंग से आगे निकल गया। एक्सपर्ट्स मानते हैं कि भाजपा का नारा अंग्रेजी में था और शहरी वर्ग तक ही पहुंच सका।

कांग्रेस के खिलाफ बीजेपी का नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट

जब कांग्रेस पार्टी यूपए के जरिए गठबंधन करके चुनावी मैदान में उतरने का फैसला किया। इधर बीजेपी पहले से ही छोटे दलों से गठबंधन में थी। उनके फ्रं ंट का नाम था नेशनल डेमोक्रेटिक एलायंस (एनडीए)। तमाम सर्वे और आकलन एनडीए को चुनाव जिता रहे थे। दरअसल, अटल बिहारी की सरकार में भारत का विदेशी मुद्रा भंडार 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर हो गया था। सरकारी सेक्टर में काफी सारे लोगों को नौकरियां मिली थीं। भाजपा सोनिया गांधी के विदेशी मूल के होने को भी मुद्दा बनाई। इन सब के बीच भाजपा ने अपने आप को हिंदुत्व वाली नीतियों से थोड़ा दूर किया और फील गुड फैक्टर पर सवार हो कर आगे बढ़ी। चुनाव आयोग ने 20 अप्रैल 2004 से चार चरण में चुनाव कराने का ऐलान किया। इस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले एनडीए को 544 में से 181 सीटें ही मिल सकीं, जबकि यूपीए को कुल 218 सीटें मिलीं। सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने की अटकलें तेज होने लगीं। हालांकि, सोनिया गांधी ने खुद को चुनाव के दौरान पीएम उम्मीदवार के रूप में पेश नहीं किया था। मगर गठबंधन में स्थिति मजबूत और साफ रहे इसके लिए कांग्रेस ने पहले ही कहा था कि अगर यूपीए की सरकार बनती है तो उसका नेतृत्व कांग्रेस करेगी। सोनिया गांधी कांग्रेस संसदीय दल यानी सीपीपी की नेता थीं, इसके बावजूद वो सरकार बनाने के दावे के साथ राष्ट्रपति कलाम से नहीं मिलीं।

सुषमा ने विदेशी होने पर जताया था एतराज

सुषमा स्वराज के लगातार राजनीतिक बयानबाजी के इतर दोनों नेताओं की जब भी मुलाकात हुई, संवाद हमेशा ही रहा। सुषमा स्वराज को सोनिया गांधी ने असाधारण प्रतिभा की महिला कहा था। सुषमा स्वराज के लगातार राजनीतिक बयानबाजी के इतर दोनों नेताओं की जब भी मुलाकात हुई, संवाद हमेशा ही रहा। सुषमा स्वराज को सोनिया गांधी ने असाधारण प्रतिभा की महिला कहा था। इधर कांग्रेस को बहुमत मिलते ही चौराहों तक पर चर्चा होने लगी कि सोनिया गांधी अब देश की प्रधानमंत्री बनेंगी। इसी में भाजपा सोनिया के विदेशी मूल के होने का जिन्न फिर से बाहर ले आई। सुषमा स्वराज ने कहा, ‘अगर मैं संसद में जाकर बैठती हूं तो हर हालत में मुझे सोनिया गांधी को माननीय प्रधानमंत्री जी कहकर संबोधित करना होगा, जो मुझे गंवारा नहीं है। मेरा राष्टï्रीय स्वाभिमान मुझे झकझोरता है। मुझे इस राष्ट्रीय शर्म में भागीदार नहीं बनना।’ अब देश भर में सवाल था कि आगे क्या होगा? 13 मई को चुनाव का रिजल्ट घोषित हुआ और कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक हुई। यहां सोनिया गांधी के लीडरशिप और भूमिका के लिए तालियां बजीं, खुशी जाहिर की गई, मगर नेतृत्व के मुद्दे पर चुप्पी रही। थोड़ी देर बाद बैठक आगे बढ़ी तो सोनिया गांधी ने खुद ही यह कहकर सबको चुप करा दिया कि पीएम पद का मुद्दा पार्टी के सांसद और सहयोगी दल के नेताओं के साथ मिलकर सुलझाया जाना ठीक होगा। रिपोर्ट्स बताती हैं कि इस बैठक के बाद सोनिया गांधी ने अपने बच्चों के साथ चर्चा की और राहुल गांधी ने उन्हें प्रधानमंत्री बनने से मना किया। नटवर सिंह ने इस बात का जिक्र अपनी किताब ‘वन लाइफ इज नॉट इनफ’ में भी किया है। अपनी किताब में नटवर लाल ने यह भी लिखा है कि सोनिया गांधी ने उन्हें ही बाकी के कई नेताओं को यह समझाने की जिम्मेदारी दी कि वो प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहती हैं। अपनी किताब में नटवर लाल ने यह भी लिखा है कि सोनिया गांधी ने उन्हें ही बाकी के कई नेताओं को यह समझाने की जिम्मेदारी दी कि वो प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहती हैं। इसके बाद सोनिया ने कि वह 14 मई को होने वाली सीपीपी की बैठक में प्रधानमंत्री न बनने के अपने फैसले को सार्वजनिक करेंगी। मगर बैठक की तारीख 15 मई तय हुई। गठबंधन के नेताओं से घर-घर जाकर मिलती रहीं सोनिया, मगर भनक नहीं लगने दी।

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